प्रयागराज महाकुंभ सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का स्वर्णिम कालखण्ड
सनातन संस्कृति में केवल मानव-कल्याण आधारित संस्कारों की भरमार नहीं अपितु इस सृष्टी के प्रत्येक अव्यय के कल्याण व सहभागिता को सहजता से स्वीकार कर अविघ्न रूप से निरंतरता बनाए हुए है।
सनातन की गहराई व वैज्ञानिक आधार को समझने के लिए कई जन्मों की साधना भी अपर्याप्त सिद्ध हो सकती है ऐसे में अल्पज्ञता से जन्मी क्षणभंगुर संस्कारों की संस्कृतियों से इसे बिना किसी त्रुटि के समझने की अपेक्षा करना अंततः मुर्खता ही सिद्ध होती रही है।
भारत की परतंत्रता उसकी समृद्ध सत्त्वगुणी संस्कृति पर भोगवादी अधोगामी संस्कारों के षड्यंत्रों का ही परिणाम था जिसके फलस्वरूप सदियों के उनके वर्चस्व जनित दूषित वातावरण ने हम भारतियों में भी दृष्टिदोष उत्पन्न कर आत्मग्लानी का भाव जागृत किया और आज हमारी विचारधारा, चिंतन, शिक्षा, मान्यता, चर्चा, योजना उसी परिपेक्ष का किसी न किसी रूप में अनुसरण करती दिखाई देती हैं। उनके आरोपों का स्पष्टीकरण हमारे आहार, व्यव्हार व विचारों में देने का प्रयास निरंतर चल रहा है। स्वतंत्र भारत में भी परतंत्रता के दर्शन आम हैं।
आज हमार आहार, व्यवहार व दृष्टिकोण हमारी मूल संस्कृति से भिन्न एक गैर-सनातनी संस्कृति को प्रतिबिम्बित करती है। जिसका अनुसरण प्राकृतिक सृष्टिचक्र को बाधित कर एक अशांत वातावरण को जन्म दे चुका है जिसमें सभी अंग शांतिपूर्ण सहअस्तित्व त्याग निरंतर संघर्ष की स्तिथि में दिखाई देते हैं। जीवन मानवीय-मूल्यों को त्याग, निर्दयी पाशविक स्वार्थसिद्धि हेतु समर्पित हो चुका है।
हमारी मूल संस्कृति व संस्कारों का आधार पञ्च-महाभूत अर्थात पंचतत्वों की समन्वयक मृदा(पृथ्वी) को नष्ट करने की प्रक्रिया, आधुनिक युग में विकास की अवधारणा का अंग है। जिन जीवंत-तत्त्वों का अस्तित्व हमारी इस दिव्य संस्कृति की प्राण-शक्ति है, जिनकी अस्थिरता सृष्टि के उस वास्तु-पुरुष के सहज, सुगम्य, शांतिप्रिय स्वरुप को असहज, अगम्य व अशांत बनाने हेतु प्रयासरत हैं।
निःसंदेह जब अपनी ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता निर्बल हो चुकी हो तो किसी बाहरी विमर्श को पूर्ण दोष देना भी उचित नहीं। अपनी योग्यता, अधिकार व पूर्वजों की क्षमता के विषय में अनिर्णय की स्तिथि जनित अश्रद्धा का यह परिणाम सर्वत्र दृष्टिगोचर होता रहा है।
शरद ऋतु में प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या में मनाया जाने वाला दीपावली उत्सव वास्तव में सनातन-धर्म की उस सकरात्मक शक्ति व दृष्टी का प्रमाण है जो सर्वाधिक अन्धकार को भी प्रकाश, ज्ञान, अध्यात्म व अर्थ से समृद्ध करने में सक्षम है।
हम परतंत्र मानसिकता के वशीभूत, शताब्दियों से इस उत्सव को भोगवादी दृष्टि से मानते आए हैं बिना ये समझे या जाने कि हम एक अनंत की सीमा तक की व्यापकता के द्वारा अंगीकृत सनातन संस्कृति के उपासक हैं। धर्म, अर्थ व जीवन के संकीर्ण मापदंडों वाली अपेक्षाएं हमारे वृहद् स्वरुप को लघु रूप दे हमें दुर्बलता के अभिशाप में लिप्त कर रही हैं।
बृहदारण्यक उपनिषद का यह मन्त्र, "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।" इसको और स्पष्टता से समझाने का प्रयास है। जिसका सूक्ष्म अर्थ है हम जिस पूर्ण के उपासक या धारक है उसे, पूर्णत: छिनने या निकालने या ध्वस्तीकरण के उपरांत भी वह उतना ही पूर्ण रहता है जितना वह था।
संकीर्ण विचार धारकों के लिए यह असम्भव प्रतीत होगा क्योंकि वे धर्मान्तरित दृष्टिदोष से ग्रस्त जीवनशैली से चिपके हुए हैं जबकि वे धर्मान्ध विधर्मी इस दृष्टिकोण को अंगीकृत कर अपने को पूर्ण व सर्वशक्तिमान का उपासक मानने लगे हैं।
हमने लक्ष्मी पूजन को अर्थ प्राप्ति का सीमित साधन समझ लिया है जबकि श्रीमद्भागवत पुराण में अष्ट लक्ष्मी अर्थात लक्ष्मी के आठ स्वरूपों का उल्लेख है जो न केवल मनुष्य बल्कि पूरी श्रृष्टि के जीव-जगत के कल्याण को सुनिश्चित कर शांति, शांति, शांति के वातावरण को पुनर्स्थापित करने की असीम शक्ति की धारक है।
भारत के इस स्वर्णिम कालखण्ड में यह प्रयागराज महाकुंभ माघ पूर्णिमा इस राष्ट्र के पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षमता अवश्य प्रदान करेगा।