परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार

 भारत में परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार

आज हम काल के उस खंड में पहुँच चुके हैं जहाँ विभिन्न संस्कृतियों की पहचान और उनके उदय और अस्त होने के कारण व अस्तित्व में बने रहने के मूल-आधार की जानकारियों का संकलन व विशलेषण उचित जान पड़ता है

अभी तक हम इस भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन संस्कृति आधारित विचारधारा व दृष्टिकोण से ही समस्त विश्व की संस्कृतियों का आंकलन करते रहे हैं जिसका आत्मघाती परिणाम आज हम चारों ओर देख रहे हैं 

अर्थात

"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।"

जो व्यवहार अपने लिए प्रतिकूल (अप्रिय) प्रतीत होता हो, उसे किसी भी अन्य के साथ कभी व्यवहार में न लायें। पद्मपुराण सृष्टि पर्व (19/357-358)

मूल श्लोक :

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
आत्मनश्चानुकूलानि कृतेऽन्येषां समाचरेत्॥



हमारी सकरात्मक सोच ने, नकरात्मक वातावरण के लिए एक अनुकूल व सहज अवसर प्रस्तुत किया, उन्हें अपने समकक्ष समान अवसर दिए जिसने उन्हें हमसे जानने सीखने व हमारे संस्कारों में छिद्र-अन्वेषण का निरन्तर अवसर दिया



भारत में   परजीवी संस्कृतियों             का     उदय और विस्तार

परजीवी संस्कृतियों को इस प्रकार के वातावरण में फलने-फूलने का अवसर सदियों से मिलता रहा है और आज वे समाज की मुख्य
धारा का अंग बन चुके हैं जिसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क से लेकर आचरण तक में स्पष्ट दिखाई देने लगा है

इस श्रृष्टि में प्रकृति, पर्यावरण व जीवन एक दूसरे के पोषक रहे हैं और इनके प्रत्येक अव्यय शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को सिद्ध करते आचरण को आदिकाल से ही अंगीकृत किये हुए हैं क्योंकि सनातन संस्कृति अनादी काल से ही विश्वव्यापी व व्यवहार-कुशल थी

स्वाधीन भारत में पराधीन संस्कारों का विस्तार

स्वाधीन भारत, भले ही आज की धर्मान्तरित पीढ़ी को पूर्णत: स्वाधीन लगती हो, उन्हें अपने भारतीय होने व सनातन संस्कृति के अंगभूत होने पर गर्व रहता हो किन्तु वास्तविकता सर्वथा भिन्न है हम जो थे वे आज हम नहीं हैं और अगर २०१३ के उपरांत दृष्टिदोषों का उपचार प्रारम्भ न हुआ होता और भारत के एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में पुनर्जागरण व पुनरुत्थान के वातावरण का निर्माण न होंता, तो आज भी हम इस प्रकार से और इस प्रकार के विचारों को प्रकट करने का दु:साहस करने में स्वयं को असमर्थ ही पाते 

 

पीपल-बाबा का उपरोक्त विडियो-कथन, हमारे द्वारा वर्तमान में निर्मित की गई वस्तुस्थिति को दर्शाता है, कल तक हम अपनी पारम्परिक जीवनशैली के अनुसरण क्र भले ही साधारण दिखाई देते थे किन्तु कम से कम शुद्ध प्राण-वायु, भूमि, वातवरण आदि की उपलब्धता तो अबाधित थी, गर्मी का प्रकोप वरदान तो था आज की तरह अभिशाप तो नहीं

क्या हैं परजीवी संस्कृति और संस्कार? पराधीन संस्कारों का विस्तार 

परजीवी संस्कृति वास्तव में पारम्परिक भारतीय जीवनदृष्टि के संदर्भ में कृतघ्न संस्कृति ही कहलाएगी जो अकृतज्ञ है अपने प्रति किए गए उपकार को न मानती है न समझती ही है

हमारे पूर्वज सदा ही धरती को माता मानते आये थे क्योंकि वह सबकुछ धारण करती है, पंचतत्व उसी के द्वारा पोषित हो हमारी भिन्न-२ आवश्यकताओं की पूर्ति संभव बनाते हैं। जल-थल-नभ सभी उसी के अंग हैं और वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण दूषित स्तिथि में पहुंचाए जा चुके हैं

आज हमारी सभी व्यवस्थाएं, व्यवसाय, भोगवाद के संसाधनों सभी का मूल स्रोत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वही जैविक-जगत है जिसको हम दशकों से परजीवी संस्कारों के उदित होने के कारण क्षीण करते रहे हैं

प्रकृति सदा ही हमारी ईष्ट रही है वह कभी हम पर निर्भर नहीं रही न ही अभी भी है किन्तु आज के हमारे दिग्भ्रमित समाज को लगता है कि प्रकृति उनकी दया की पात्र है, उनकी दया पर निर्भर है। यह कृतज्ञता का भाव नहीं, कृतघ्नता का भाव है जो हमारी मूल लोक परम्परा की मान्यता अनुसार दंडनीय अपराध का बोध कराता है

शुद्धता, स्वच्छता, सम्पन्नता, पूर्णता हेतु यह पंचतत्वों का जैविक-तंत्र किसी पर निर्भर नहीं, वह आज भी स्वाधीन है:-

१. गंदे नाले को स्वच्छ बनाने हेतु

२. कूड़े और गन्दगी को उर्वरक बनाने हेतु

३. आपके बर्तन, कपड़े आदि को पुन: स्वच्छ करने में

४. स्नान आदि के दौरान व उपरांत त्वचा, शरीर की प्राकृतिक छटा बिखरने में 

५. वायुमंडल/जल-वायु/जलस्रोत को पुन: प्रदूषण से मुक्ति दिलाने में

प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत यह सहजता से और स्वेच्छा से स्वत: ही करते है और करते रहे हैं क्योंकि वे हमें भी अपना ही सहचर, सनातनी व्यवस्था में सहभागी मानते थे हैं और रहेंगे। किन्तु हम (आज हम परजीवी-सांस्कृतिक-विचारधारा के कुप्रभाव में जीवनयापन करने लगे हैं जो चिरस्थायी नहीं अपितु क्षण-भंगूर है) उनके सहयोग के बिना, दलाल व्यवस्था का उपयोग कर, कृत्रिम-बुद्धिमत्ता के सहारे कृत्रिम-संसाधनों का निर्माण और उपयोग कर उनको(प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत को) उनकी तुच्छता का अनुभव कराने को बाध्य करने का असफल कुकृत्य कर रहे हैं। जो उनको हानि पहुंचा रहे हैं, उनको अनुपयोगी बना व्यवस्था से बाहर कर नष्ट कर रहे हैं, उनके अस्तित्व को निरर्थक बनाने में जुटे हैं

प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत जहाँ बहुसंख्यक होते हैं वे स्वत: ही सभी व्यवस्थाओं को संज्ञान में रखते हुए उनकी अनुकूलतम अर्थात यथासंभव सर्वोत्तम परिस्थितियाँ का निर्माण करते हैं वही कार्य वे अल्पसंख्यक होने के उपरांत पूर्णत: में करने में असमर्थ हो जाते हैं

अत: परजीवियों की बहुतायत, सहजीवियों की न्यूनता में पहुंचना या पहुँचाने वाली संस्कृतियों के उदय और निरंकुश विस्तार ने हमारे ही सहयोगी, शुभचिंतक, चिर्मित्र उस प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत की सनातन संस्कृति का तिरस्कार आज का व्यवहार बना दिया है


    

प्रयागराज महाकुंभ सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का स्वर्णिम कालखण्ड

 प्रयागराज महाकुंभ सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का स्वर्णिम कालखण्ड


भारत सनातन को पहचानने वाली विश्व की एकमात्र सांस्कृतिक धरोहर है जो अनादी काल से प्रकृतिकपर्यावरणजीव-जन्तुओं के संग भी शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना से वर्तमान काल-खण्ड में भी अस्तित्व में है।

 

सनातन संस्कृति में केवल मानव-कल्याण आधारित संस्कारों की भरमार नहीं अपितु इस सृष्टी के प्रत्येक अव्यय के कल्याण व सहभागिता को सहजता से स्वीकार कर अविघ्न रूप से निरंतरता बनाए हुए है

 

सनातन की गहराई व वैज्ञानिक आधार को समझने के लिए कई जन्मों की साधना भी अपर्याप्त सिद्ध हो सकती है ऐसे में अल्पज्ञता से  जन्मी क्षणभंगुर संस्कारों की संस्कृतियों से इसे बिना किसी त्रुटि के समझने की अपेक्षा करना अंततः मुर्खता ही सिद्ध होती रही है

 

भारत की परतंत्रता उसकी समृद्ध सत्त्वगुणी संस्कृति पर भोगवादी अधोगामी संस्कारों के षड्यंत्रों का ही परिणाम था जिसके फलस्वरूप सदियों के उनके वर्चस्व जनित दूषित वातावरण ने हम भारतियों में भी दृष्टिदोष उत्पन्न कर आत्मग्लानी का भाव जागृत किया और आज हमारी विचारधाराचिंतनशिक्षामान्यताचर्चायोजना उसी परिपेक्ष का किसी न किसी रूप में अनुसरण करती दिखाई देती हैं। उनके आरोपों का स्पष्टीकरण हमारे आहारव्यव्हार व विचारों में देने का प्रयास निरंतर चल रहा है। स्वतंत्र भारत में भी परतंत्रता के दर्शन आम हैं।

 

आज हमार आहारव्यवहार व दृष्टिकोण हमारी मूल संस्कृति से भिन्न एक गैर-सनातनी संस्कृति को प्रतिबिम्बित करती है। जिसका अनुसरण प्राकृतिक सृष्टिचक्र को बाधित कर एक अशांत वातावरण को जन्म दे चुका है जिसमें सभी अंग शांतिपूर्ण सहअस्तित्व त्याग निरंतर संघर्ष की स्तिथि में दिखाई देते हैं। जीवन मानवीय-मूल्यों को त्यागनिर्दयी पाशविक स्वार्थसिद्धि हेतु समर्पित हो चुका है।


 

हमारी मूल संस्कृति व संस्कारों का आधार पञ्च-महाभूत अर्थात पंचतत्वों की समन्वयक मृदा(पृथ्वी) को नष्ट करने की प्रक्रियाआधुनिक युग में विकास की अवधारणा का अंग है। जिन जीवंत-तत्त्वों का अस्तित्व हमारी इस दिव्य संस्कृति की प्राण-शक्ति हैजिनकी अस्थिरता सृष्टि के उस वास्तु-पुरुष के सहजसुगम्यशांतिप्रिय स्वरुप को असहजअगम्य व अशांत बनाने हेतु प्रयासरत हैं।

 


निःसंदेह जब अपनी ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता निर्बल हो चुकी हो तो किसी बाहरी विमर्श को पूर्ण दोष देना भी उचित नहीं। अपनी योग्यताअधिकार व पूर्वजों की क्षमता के विषय में अनिर्णय की स्तिथि जनित अश्रद्धा का यह परिणाम सर्वत्र दृष्टिगोचर होता रहा है।

 

शरद ऋतु में प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या में मनाया जाने वाला दीपावली उत्सव वास्तव में सनातन-धर्म की उस सकरात्मक शक्ति व दृष्टी का प्रमाण है जो सर्वाधिक अन्धकार को भी प्रकाशज्ञानअध्यात्म व अर्थ से समृद्ध करने में सक्षम है।

 

हम परतंत्र मानसिकता के वशीभूतशताब्दियों से इस उत्सव को भोगवादी दृष्टि से मानते आए हैं बिना ये समझे या जाने कि हम एक अनंत की सीमा तक की व्यापकता के द्वारा अंगीकृत सनातन संस्कृति के उपासक हैं। धर्मअर्थ व जीवन के संकीर्ण मापदंडों वाली अपेक्षाएं हमारे वृहद् स्वरुप को लघु रूप दे हमें दुर्बलता के अभिशाप में लिप्त कर रही हैं। 

 

बृहदारण्यक उपनिषद का यह मन्त्र, "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।इसको और स्पष्टता से समझाने का प्रयास है 
जिसका सूक्ष्म अर्थ है हम जिस पूर्ण के उपासक या धारक है उसे
पूर्णत: छिनने या निकालने या ध्वस्तीकरण के उपरांत भी वह उतना ही पूर्ण रहता है जितना वह था

 

संकीर्ण विचार धारकों के लिए यह असम्भव प्रतीत होगा क्योंकि वे धर्मान्तरित दृष्टिदोष से ग्रस्त जीवनशैली से चिपके हुए हैं जबकि वे धर्मान्ध विधर्मी इस दृष्टिकोण को अंगीकृत कर अपने को पूर्ण व सर्वशक्तिमान का उपासक मानने लगे हैं।

 

हमने लक्ष्मी पूजन को अर्थ प्राप्ति का सीमित साधन समझ लिया है जबकि श्रीमद्भागवत पुराण में अष्ट लक्ष्मी अर्थात लक्ष्मी के आठ स्वरूपों का उल्लेख है जो न केवल मनुष्य बल्कि पूरी श्रृष्टि के जीव-जगत के कल्याण को सुनिश्चित कर शांतिशांतिशांति के वातावरण को पुनर्स्थापित करने की असीम शक्ति की धारक है

 

भारत के इस स्वर्णिम कालखण्ड में यह प्रयागराज महाकुंभ माघ पूर्णिमा इस राष्ट्र के पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षमता अवश्य प्रदान करेगा।

गाय मारकर जूता दान

 

जब हमारी कथनी और करनी में असमान्य अंतर परिलक्षित होगा, हमारे दायित्व और धर्म मूल उद्देश्य से भटके हुए होंगे और जब हम इस बात को समझने लगेंगे तो यह कहावत, "गाय मारकर जूता दान" हमें उचित भी लगेगी और समझ भी आ जाएगी
दया धर्म का मूल है। पाप मूल अभिमान।।  तुलसी दया न छांड़िए। जब लग घट में प्राण।।


हमारी कथनी और करनी, आदर्श और व्यवहार में आकाश-पातळ के समान अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है और ऐसा एक स्थान या सीमित-परिधि में नहीं हो रहा बल्कि यह एक व्यापक परिदृश्य है। हम दान-धर्म भी निभा रहे हैं किन्तु हम क्यों पाप के भागी बन रहे हैं या दैनिक-जीवन में उसके प्रतिफल कहे जाने वाले कष्ट को भोग रहे हैं इस पर एक सशंकित समाज बन चुके हैं




वर्तमान काल-खंड में 'गाय' गौ जिसका हमारी पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार एकमात्र तात्पर्य स्वदेशी नश्ल की देशी-गायों से है जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण वन के गौचरों में चराते थे वर्तमान काल-खण्ड में जिन गायों का धार्मिक या सामाजिक महत्व उस स्तर पर नहीं है जिस स्तर पर कुछ दशकों पूर्व था या आज से ५००-१००० वर्ष पूर्व रहा होगा



आज हमारी मान्यताएँ, भावनाएं भले ही हमें वही दिखती व लगती हों किन्तु हमारी धर्मान्तरित दृष्टिकोण व विचारधारा वास्तव में प्रदूषित हो चुका है, गौपालन अब केवल दूध उत्पादन का अंग है, गाय को अब कोई भी सामान्य परिवार अंगीकृत नहीं करता, उसे परिवार का अंग नहीं समझता जैसा वे आज कुत्तों को समझते हैं 


“The Indian Farmer 2000 Years Ago

The Real Strength of India”


गौपालन व गौशाला आज दुग्ध उत्पादन की इकाई बन चुकी है वह भोगवादी संस्कृति में फैक्ट्री के उन कर्मियों की तरह हैं जिनका झुण्ड केवल उत्पाद, उत्पादन, गुणवत्ता परिवर्धन के लिए संघठित रहकर प्रयास करते हैं



आधुनिक आवासीय परिसर, निर्माणशैली, नगर, शहर, अट्टालिकाएँ आदि किसी में भी हमारी संस्कृति, संस्कार, देवत्व की आधार रही गौमाता के समायोजन की कोई व्यवस्था ही नहीं है क्योंकि यह आयातित विद्वत्ता, हमारी मूल संस्कृति व संस्कारों का अंश कभी नहीं रहा



जब निः स्वार्थ भाव से  "बहुजन हिताय  बहुजन सुखाय"  संस्कृति का पालन करने वाले  पंचतत्व स्रोत व जीवनशैली प्रदूषित हो विलुप्ति की ओर अग्रसर है।  आम जीव में  अनाधिकृत ईमानदार प्रयास कैसे अछूते रह सकते हैं?  #Corruption #चरित्र_संकट #प्रदूषण



कुछ बुद्धिजीवी कालान्तर में हुए युग-परिवर्तन को आधार बना इस प्रकार के विचार व व्यवहार का अनुमोदन करते हैं और इसे विकास ओर उस ओर देखने और बढ्ने को पिछड़ापन या अतीत की घटना से ज्यादा महत्व नहीं देते। उन्हें अपनाने या धारण करने के विषय पर चर्चा या चिंता उनका विषय नहीं है

Receding Water Table & Droughts Vs Floods

Receding Water Table & Droughts Vs Floods

On one hand water table is receding everywhere, summers are getting hotter and hotter and on another a few months later we have over flowing water, floods in and around the same places.

Are these only Weather Related Natural Disasters

Today our systems including media ignores disastrous change in human behaviour which has disbalanced nature, threatened survival of local species of plants, animals and microorganisms which always have had cooperated and helped in managing peaceful-coexistence.

Now introinspection, admission & confession has been replaced by term Natural Disaster. As if nature the basic elements which insures life remains intact on this planet is blamed.


Our converted mindsets and perceptions have turned life into a emotionless machine which only believes in production, creativity without changing gears as per the requirement and external condition of surrounding.

What is this? Who's responsible?

Should we follow the imported narrative & mindset and start blaming #global_warming #climate_change for this mess.

पर उपदेश कुशल बहुतेरे 

प्रकृति, पर्यावरण को किसी भी प्रकार से दोष देना क्या भारतीय संस्कृति रही है?



हमारे पूर्वजों ने सदा ही आत्मचिंतन को वरीयता दी है, सदा ही इसमें अपनी भूल ढूँढने व स्वीकारने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे, उन कारणों को जानने के लिए एकांतवास का सहारा लेते थे जिसके लिए, सामान्य जीवनशैली का त्याग कर वनों में निवास का निर्णय एक सामाजिक रूप से स्वीकार्य परम्परा थी, जो समाधान प्राप्त होने पर्यन्त चलती थी 



Or 

Follow our traditional insight and view things from our traditional & cultural stand point and introinspect our own activities & behaviour to get more clarity.

क्या कभी अत्यधिक गर्मी, जल की कमी, सुखा की समस्या से झूझना तो कभी अतिवृष्टि, जल भराव, बाढ़ का समाधान ढूँढना हमें आपने कुकृत्यों को समझाने में असमर्थ हैं?

हमारी इन गतिविधियों से जीव-जन्तुं, जैविक जगत जिसे हम सद्भाव, शांतिपूर्ण -सहअस्तित्व से पूर्व में परिभाषित करते रहे हैं, आज कष्ट सहकर नष्ट नहीं हो रहा है। क्या हम उनके मूल अधिकारों का हनन नहीं कर रहे हैं? क्या हमारा आचरण हमारी अपनी पारंपरिक मान्यताओं के प्रतिकूल नहीं है?



Developments Disturbing Processing of Natural Water Cycle

Today nature, natural greenry, mud as well as ponds, water pools, that were common in our villages as well as suburban localities are either encroached or lost.

Our tradition and culture is based on customs which require these natural sources of bio-diversity, life.

Covering every portion of our society/building, residence, neighbourhood, roads, streets, is actually disturbing this natural processing involved to complete water cycle in which every nook or corner used to be condusive or cooperative in past. 

When we allow nature to flourish we allow bio-diversity i.e. life to exist, living beings to survive.




Contradictory trends due to human negilegence and misunderstanding nature of nature is now being 100% blamed as #ClimateCrisis without a bit of introinspection.


 


Our tradition & culture has always supported universal eternity, allowed bio-diversity to exists, flora and fauna to flourish, which can be noticed in our local customs and traditions too.


Unfortunately today every misery, calamity is an opportunity for short-sighted, unminding individuals and businesses, who are involved in redevelopment work as an official or contractor or middle-man.

Covering every nook-corner of our streets, roads, residence with tiles, concrete is obstructing the organic cycle of nature, which allows rain water to permeate through ground, allows microbial activities.  

I don't know whether corruption could be the right word which can be used or introduced for this blind phenomenon everywhere.



Receding Water Table & Droughts Vs Floods

Rising Series of Zeros बढती शून्य श्रंखला के संचयन की प्रवृत्ति

बढती शून्य श्रंखला ₹ के संचयन की प्रवृत्ति Rising Series of Zeros

Contemporary world is today more aware on balancing its efforts towards peaceful co-existence, is keen to adopt politics with responsibility because in spite of rising temperature due to global warming, shrinking snow lines, increasing pollutants and pollution, political differences, religious fundamentalism, a new phenomenon of leadership has evolved locally and globally.



Imitating great leaders, following their style is not new but if series of zeros isn't preceded by at least One '1' i.e. A Natural Number then its a worthless series and nothing more then, representation of non-existence i.e. zero '0' only.

Today a number of imitations lack a preceding natural number and only have a long series of zeros to demonstrate their large following.

Obviously, if '1' One is followed by such long series of '0' Zeros then it is meaningful, natural number.

But when this '1' is neither preceeding not even seen following then the series is questionable, doubtful. Equivalent to Zero '0' i.e. sunya.

Today our mainstream leaders who can actually be compared to Natural Numbers which denote existence of a fact, a universal truth, a universally existing entity.



शून्य श्रंखला यानी "आकाशमंडल में टिमटिमाते तारों का समूह" या एक लम्बी ००००००००००००००००००००० की पंक्ति जिसकी लम्बाई व चौड़ाई से कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उसमें एक भी ऐसा अंक नहीं जो वास्तविकता के धरातल पर अस्तित्व में हो या आ सकने की गुणवत्ता उपलब्ध हो

वर्तमान भारत में जब भी कहीं '१" मिलता है तो उसके पीछे ये शून्य श्रृंखला जुडकर अपना अस्तित्व साकार करने का भरसक प्रयास करती है₹१०००००००/-


किन्तु अचम्भा तब लगता है जब '१' की अनुपस्थिति में भी अनेकों शून्यों की श्रृंखलाएं दृष्टिगोचर होने लगती हैं जो वास्तव में तो अस्तित्वहीन हैं किन्तु '०' के आधार पर अस्तित्व में दिखने का प्रयास करती हैं। ₹०००००००/-

अयोग्यता को योग्यता के समकक्ष खड़ा करना, उक्त कहावत का निरूपण लगता है जिसके अनुसार, "कौवा चला हंस की चाल"

इस प्रकार के बहुरूपियों की उपस्थिति को समझना हर किसी की समझ की बात नहीं खासकर उनके जो अपने व्यवसाय या अन्य क्रियाकलापों में केवल धन उपार्जन हेतु अत्यधिक व्यस्त रहते हैं भविष्य में ये बगुलाभक्त क्या गुल खिलाते हैं कोई नहीं जान सकता, किन्तु ये तो हम भी समझते हैं कि नकली कभी भी असली नहीं होता न ही उसकी उपयोगिता असली के समकक्ष हो सकती है 

Guru Purnima गुरु पूर्णिमा குரு பூர்ணிமா గురుపౌర్ణమి ഗുരു പൂർണിമ ગુરુ પૂર્ણિમા Enlightening

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।


Guru Purnima गुरु पूर्णिमा குரு பூர்ணிமா గురుపౌర్ణమి ഗുരു പൂർണിമ ગુરુ પૂર્ણિમા

Guru Poornima-गुरु पूर्णिमा as per Sanatan tradition is an occassion to remember our spiritual guru, his/her teachings as applicable for contemporary world in modern civilization in our lives & introinspecting our own lifestyle, occupation, behaviour in that framework.
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

Guru in sanskrit means a mentor, expert who dispels darkness in every sphere of our life by simplifying complexity in a very comprehensive manner with tips which are convenient to follow and adopt.

Moon is related to mind, emotion or pshyche, mother and brighter/full moon means illuminating impact on our mind and pshyche.

Person born on Purnima i.e. Full Moon are known to be spiritually awakened.

ॐ असतो मा सद्गमय। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥ परित्राणाय साधूनां  विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय  सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

We often get distracted from our path, our goals and often need to be recorrected or retold to return to our original path. Guru Purnima गुरु पूर्णिमा குரு பூர்ணிமா గురుపౌర్ణమి ഗുരു പൂർണിമ ગુરુ પૂર્ણિમા is a occassion to recollect & reconsider all teachings of our Guru Ji and return to the path they taught us to follow to maintain a balanced approach in life, drive optimum all round success in life.

प्रकाश स्वत: ही अन्धकार दूर कर देगा

Today our limitations, problems, tensions including social, professional issues as well as issues at community level like corruption, pollution, health care can all be related to darkness i.e. ignorance about probable solutions or root-cause of the problem. 


Traditional Indian Insight

Lack of honesty, clearity is actually illusioning 'fact based concepts' on which our tradition, culture was based since iternity as you only fall off, get extinct when your belief-system is based on facts which are fictious and not based on universal truth.

Āshāda Ekādashi is a day synonymous with Pānduranga Vittalā. It is the day devotees sing the names of the Lord, while walking to the temple of Pandharpur. Madrasana came together with Vinay Varanasi and Sivasri Skandaprasad to recreate this walk to the temple of Krishna, in Bangalore! On the morning of āshāda ekādashi, ( July 10th, 2022) Vinay and Sivasri were joined by Jaidev Haridos and Chandrashekhar , and they shared stories of Nāmdev, sung abhangs and compositions as they walked through the temples of Malleswaram. They were joined by several enthusiastic participants, who sang along and keenly listened to the stories of Nāmdev, a Marathi saint. This event was a precursor to a deeper exploration of Nāmdev's journey of bhakti. 

 
सद्गमय हमें   अपने स्वयं के   अज्ञान को दूर करने के लिए   प्रोत्साहित करता है   जो हमारी दृष्टि को    अवरुद्ध करता है।

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परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार

 भारत में परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार । आज हम काल के उस खंड में पहुँच चुके हैं जहाँ विभिन्न संस्कृतियों की पहचान और उनके उदय और अस्...

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