भारत में परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार।
आज हम काल के उस खंड में पहुँच चुके हैं जहाँ विभिन्न संस्कृतियों की पहचान और उनके उदय और अस्त होने के कारण व अस्तित्व में बने रहने के मूल-आधार की जानकारियों का संकलन व विशलेषण उचित जान पड़ता है।
अभी तक हम इस भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन संस्कृति आधारित विचारधारा व दृष्टिकोण से ही समस्त विश्व की संस्कृतियों का आंकलन करते रहे हैं जिसका आत्मघाती परिणाम आज हम चारों ओर देख रहे हैं।
अर्थात
"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।"
जो व्यवहार अपने लिए प्रतिकूल (अप्रिय) प्रतीत होता हो, उसे किसी भी अन्य के साथ कभी व्यवहार में न लायें। पद्मपुराण सृष्टि पर्व (19/357-358)
मूल श्लोक :
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
आत्मनश्चानुकूलानि कृतेऽन्येषां समाचरेत्॥
हमारी सकरात्मक सोच ने, नकरात्मक वातावरण के लिए एक अनुकूल व सहज अवसर प्रस्तुत किया, उन्हें अपने समकक्ष समान अवसर दिए जिसने उन्हें हमसे जानने सीखने व हमारे संस्कारों में छिद्र-अन्वेषण का निरन्तर अवसर दिया।
परजीवी संस्कृतियों को इस प्रकार के वातावरण में फलने-फूलने का अवसर सदियों से मिलता रहा है और आज वे समाज की मुख्यधारा का अंग बन चुके हैं जिसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क से लेकर आचरण तक में स्पष्ट दिखाई देने लगा है।
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स्वाधीन भारत में पराधीन संस्कारों का विस्तार
स्वाधीन भारत, भले ही आज की धर्मान्तरित पीढ़ी को पूर्णत: स्वाधीन लगती हो, उन्हें अपने भारतीय होने व सनातन संस्कृति के अंगभूत होने पर गर्व रहता हो किन्तु वास्तविकता सर्वथा भिन्न है। हम जो थे वे आज हम नहीं हैं और अगर २०१३ के उपरांत दृष्टिदोषों का उपचार प्रारम्भ न हुआ होता और भारत के एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में पुनर्जागरण व पुनरुत्थान के वातावरण का निर्माण न होंता, तो आज भी हम इस प्रकार से और इस प्रकार के विचारों को प्रकट करने का दु:साहस करने में स्वयं को असमर्थ ही पाते।
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पीपल-बाबा का उपरोक्त विडियो-कथन, हमारे द्वारा वर्तमान में निर्मित की गई वस्तुस्थिति को दर्शाता है, कल तक हम अपनी पारम्परिक जीवनशैली के अनुसरण क्र भले ही साधारण दिखाई देते थे किन्तु कम से कम शुद्ध प्राण-वायु, भूमि, वातवरण आदि की उपलब्धता तो अबाधित थी, गर्मी का प्रकोप वरदान तो था आज की तरह अभिशाप तो नहीं।
क्या हैं परजीवी संस्कृति और संस्कार? पराधीन संस्कारों का विस्तार
परजीवी संस्कृति वास्तव में पारम्परिक भारतीय जीवनदृष्टि के संदर्भ में कृतघ्न संस्कृति ही कहलाएगी जो अकृतज्ञ है अपने प्रति किए गए उपकार को न मानती है न समझती ही है।
हमारे पूर्वज सदा ही धरती को माता मानते आये थे क्योंकि वह सबकुछ धारण करती है, पंचतत्व उसी के द्वारा पोषित हो हमारी भिन्न-२ आवश्यकताओं की पूर्ति संभव बनाते हैं। जल-थल-नभ सभी उसी के अंग हैं और वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण दूषित स्तिथि में पहुंचाए जा चुके हैं।
आज हमारी सभी व्यवस्थाएं, व्यवसाय, भोगवाद के संसाधनों सभी का मूल स्रोत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वही जैविक-जगत है जिसको हम दशकों से परजीवी संस्कारों के उदित होने के कारण क्षीण करते रहे हैं।
प्रकृति सदा ही हमारी ईष्ट रही है वह कभी हम पर निर्भर नहीं रही न ही अभी भी है किन्तु आज के हमारे दिग्भ्रमित समाज को लगता है कि प्रकृति उनकी दया की पात्र है, उनकी दया पर निर्भर है। यह कृतज्ञता का भाव नहीं, कृतघ्नता का भाव है जो हमारी मूल लोक परम्परा की मान्यता अनुसार दंडनीय अपराध का बोध कराता है।
शुद्धता, स्वच्छता, सम्पन्नता, पूर्णता हेतु यह पंचतत्वों का जैविक-तंत्र किसी पर निर्भर नहीं, वह आज भी स्वाधीन है:-
१. गंदे नाले को स्वच्छ बनाने हेतु
२. कूड़े और गन्दगी को उर्वरक बनाने हेतु
३. आपके बर्तन, कपड़े आदि को पुन: स्वच्छ करने में
४. स्नान आदि के दौरान व उपरांत त्वचा, शरीर की प्राकृतिक छटा बिखरने में
५. वायुमंडल/जल-वायु/जलस्रोत को पुन: प्रदूषण से मुक्ति दिलाने में
प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत यह सहजता से और स्वेच्छा से स्वत: ही करते है और करते रहे हैं क्योंकि वे हमें भी अपना ही सहचर, सनातनी व्यवस्था में सहभागी मानते थे हैं और रहेंगे। किन्तु हम (आज हम परजीवी-सांस्कृतिक-विचारधारा के कुप्रभाव में जीवनयापन करने लगे हैं जो चिरस्थायी नहीं अपितु क्षण-भंगूर है) उनके सहयोग के बिना, दलाल व्यवस्था का उपयोग कर, कृत्रिम-बुद्धिमत्ता के सहारे कृत्रिम-संसाधनों का निर्माण और उपयोग कर उनको(प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत को) उनकी तुच्छता का अनुभव कराने को बाध्य करने का असफल कुकृत्य कर रहे हैं। जो उनको हानि पहुंचा रहे हैं, उनको अनुपयोगी बना व्यवस्था से बाहर कर नष्ट कर रहे हैं, उनके अस्तित्व को निरर्थक बनाने में जुटे हैं।
प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत जहाँ बहुसंख्यक होते हैं वे स्वत: ही सभी व्यवस्थाओं को संज्ञान में रखते हुए उनकी अनुकूलतम अर्थात यथासंभव सर्वोत्तम परिस्थितियाँ का निर्माण करते हैं वही कार्य वे अल्पसंख्यक होने के उपरांत पूर्णत: में करने में असमर्थ हो जाते हैं।
अत: परजीवियों की बहुतायत, सहजीवियों की न्यूनता में पहुंचना या पहुँचाने वाली संस्कृतियों के उदय और निरंकुश विस्तार ने हमारे ही सहयोगी, शुभचिंतक, चिर्मित्र उस प्रकृति पर्यावरण जैविक-जगत की सनातन संस्कृति का तिरस्कार आज का व्यवहार बना दिया है








