एक साधे, सब सधे। एक भाजे, सब भजे। यह केवल एक कहावत या मुहावरा नहीं है, बल्कि एक सास्वत सत्य है, जो अनेकों बार, हमारे जीवन में प्रत्यक्ष होता रहता है, ये बात और है की हम इसे समझ न सकें, वैसे कहते है "प्रत्यक्षं किम प्रमाणं", अतः प्रत्यक्ष को प्रमाण के आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह तो स्पष्ट रूप से सामने दिखना ही रहा होता है।
आज के सन्दर्भ में बात करें तो आज भारतवर्ष का उद्भव या उत्कर्ष होता दिखाई दे रहा है, और लोग निजी स्वार्थ या विकृत दृष्टि से ऐसे समय पर भ्रम पैदा करने की नाकामयाब कोशिश कर रहे है। क्योंकि आज इस राष्ट्र में राजनीति राष्ट्रनीति पर हावी है, मानसिक असंतुलन से उत्पन्न स्वार्थ और वैमनस्य, राष्ट्र के बढ़ते कदमों को रोकने का प्रयत्न कर रहे है।।
आज उन्नतिशील हिंदुस्तान में, निजी स्वार्थ या भ्रमवश अराजकता का माहौल उत्पन्न करने का प्रयत्न हो रहा है, लक्ष्य भेदने में भिन्न-२ प्रकार से अवरोध उत्पन्न करने का यत्न हो रहा है, जो प्रकृति के प्रतिकूल है।
केवल एक को साधने का प्रयत्न करो:- पूरे जीवन में व्यक्ति को केवल किसी एक चीज में प्रांगत हो जाना ही उसके जीवन को सफल बना देता है। क्योंकि केवल एक के साधने से ही वह सभी कुछ साध लेता है, अर्थात मनुष्य को चारो तरफ देखकर, भिन्न-२ प्रकार के गतिविधि व साधनो को देखकर हताश या निराश नहीं होना चाहिए, उसे अपना मंतव्य छोड़के किसी और गंतव्य को साधने की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए।
क्योंकि ऐसा करने से वह अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा का हास ही करेगा, जबकि ऐसा न करके केवल अपनी साधना, उपने मंतव्य के प्रति समर्पित होकर उसको प्राप्त करने का निरंतर प्रयत्न उसको सफलता के उस मक़ाम पर पहुंचाएगा जिसपर पहुँच कर उसे लगभग सभी कुछ सुगम लगेगा।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय:- आज परस्थितिया वास्तविकता से बहुत कुछ भिन्न हो चुकी है, जिसकी आवश्यकता नहीं वही जीवन का अंग है, जो विषाक्त है वही भोजन का अंश है।
ये सब उनकी देना है जो आज की पोथियों के प्रकांड पंडित है, जिन्हे लगता है की हमारी संस्कृति और परम्पराओं में वजन नहीं है। उनकी नास्तिकता उनकी पोथियों में निहित परोक्ष ज्ञान को भी उनकी दृस्टि से ओझल कर देता है। जिससे उनका ज्ञान, वास्तविकता कम और भ्रामक अधिक हो जाता है।
इस मनःस्थिति में चाहे कितनी भी पोथियाँ, कितने भी विद्यालय या विश्वविद्यालयों में, कितने ही विद्याथियों द्वारा पढ़ी जाएँ, वह कभी भी वास्तविकता के धरातल पर खरी नहीं उतर सकती, हाँ कुछ समय के लिए दिग्भ्रमित अवश्य कर सकती है।
एक साधे, सब सधे, एक भाजे, सब भजे एक पूरा दृष्टान्त है, जो आज के बदलते भारत में मौजूद है । आधुनिकता की दौड़ में अपने मूल सिद्धांतों और विचारों से आज भी सामंजस्य बनाया जा सकता है, और इसमें कोई बड़ी बात भी नहीं है अगर हम किसी एक साध्य को साध के रखे, शेष का अवशेष त्याग दें, तो अवश्य सफल होंगे।
परन्तु आज राष्ट्र में भटकाव है, कुछ तत्व है, जो इस भटकाव को बढ़ावा देते है, क्योंकि उनको सही गलत और गलत सही लगता है। अर्थ का अनर्थ करना उन्होंने उनसे सीखा है, जो स्वयं इस भारतभूमि की अदृस्य शक्ति और न्याय व्यवस्था को नहीं समझते, क्योंकि उन्हें इस तरह की सांस्कृतिक विरासत नहीं मिली। पर हमारे अपने यहाँ कुछ ऐसे विद्वान पैदा हो गए है, जिनको हर चीज में खोट दिखाई देता है, हर चीज दूषित लगती है (जबकि दूषण और प्रदुषण आज का विषय है, हिंदुस्तान पहले इससे मुक्त था) ।
उनका इस तरह का दृष्टिकोण स्वयं उनके लिए और राष्ट्र के लिए भी हानिकारक हो सकता है।
इस प्रकार की सोच और दृष्टिकोण कभी-२ यह सोचने पर मजबूर कर देती है, की ये कहीं इस राष्ट्र में भ्रष्टाचार के हितैषी तो नहीं, कहीं इनकी कोशिश परोक्षरूप से भ्रष्टाचार को आश्रय देने की तो नहीं। क्योंकि आज बहुत समय के पश्चात ऐसा अनुभव हुआ है, की भ्रष्टाचार का इस बार निकल भागना बहुत मुश्किल है, कम से कम निकट भविष्य में ही सही, पर कहीं हाताश, निराश, असफल,भ्रष्ट, दृष्टिहीनों के ये विफल प्रयास अगर कहीं गलती से सफल हो गए या हो जाते तो क्या होता?
क्या वे इसके लिए दण्डित नहीं होने चाहिंए, पर शायद नहीं।