जब हमारी कथनी और करनी में असमान्य अंतर परिलक्षित होगा, हमारे दायित्व और धर्म मूल उद्देश्य से भटके हुए होंगे और जब हम इस बात को समझने लगेंगे तो यह कहावत, "गाय मारकर जूता दान" हमें उचित भी लगेगी और समझ भी आ जाएगी।
हमारी कथनी और करनी, आदर्श और व्यवहार में आकाश-पातळ के समान अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है और ऐसा एक स्थान या सीमित-परिधि में नहीं हो रहा बल्कि यह एक व्यापक परिदृश्य है। हम दान-धर्म भी निभा रहे हैं किन्तु हम क्यों पाप के भागी बन रहे हैं या दैनिक-जीवन में उसके प्रतिफल कहे जाने वाले कष्ट को भोग रहे हैं इस पर एक सशंकित समाज बन चुके हैं।
वर्तमान काल-खंड में 'गाय' गौ जिसका हमारी पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार एकमात्र तात्पर्य स्वदेशी नश्ल की देशी-गायों से है जिन्हें जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण वन के गौचरों में चराते थे वर्तमान काल-खण्ड में जिन गायों का धार्मिक या सामाजिक महत्व उस स्तर पर नहीं है जिस स्तर पर कुछ दशकों पूर्व था या आज से ५००-१००० वर्ष पूर्व रहा होगा।
आज हमारी मान्यताएँ, भावनाएं भले ही हमें वही दिखती व लगती हों किन्तु हमारी धर्मान्तरित दृष्टिकोण व विचारधारा वास्तव में प्रदूषित हो चूका है, गौपालन अब केवल दूध उत्पादन का अंग है, गाय को अब कोई भी सामान्य परिवार अंगीकृत नहीं करता, उसे परिवार का अंग नहीं समझता जैसा वे आज कुत्तों को समझते हैं।
गौपालन व गौशाला आज दुग्ध उत्पादन की इकाई बन चुकी है वह भोगवादी संस्कृति में फैक्ट्री के उन कर्मियों की तरह हैं जिनका झुण्ड केवल उत्पाद, उत्पादन, गुणवत्ता परिवर्धन के लिए संघठित रहकर प्रयास करते हैं।
आधुनिक आवासीय परिसर, निर्माणशैली, नगर, शहर, अट्टालिकाएँ आदि किसी में भी हमारी संस्कृति, संस्कार, देवत्व की आधार रही गौमाता के समायोजन की कोई व्यवस्था ही नहीं है क्योंकि यह आयातित विद्वत्ता का अंश नहीं कभी नहीं रहा।
कुछ बुद्धिजीवी कालान्तर में हुए युग-परिवर्तन को आधार बना इस प्रकार के विचार व व्यवहार का अनुमोदन करते हैं और इसे विकास ओर उस ओर देखने और बढ्ने को पिछड़ापन या अतीत की घटना से ज्यादा महत्व नहीं देते। उन्हें अपनाने या धारण करने के विषय पर चर्चा या चिंता उनका विषय नहीं है।
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