जब हमारी कथनी और करनी में असमान्य अंतर परिलक्षित होगा, हमारे दायित्व और धर्म मूल उद्देश्य से भटके हुए होंगे और जब हम इस बात को समझने लगेंगे तो यह कहावत, "गाय मारकर जूता दान" हमें उचित भी लगेगी और समझ भी आ जाएगी।
हमारी कथनी और करनी, आदर्श और व्यवहार में आकाश-पातळ के समान अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है और ऐसा एक स्थान या सीमित-परिधि में नहीं हो रहा बल्कि यह एक व्यापक परिदृश्य है। हम दान-धर्म भी निभा रहे हैं किन्तु हम क्यों पाप के भागी बन रहे हैं या दैनिक-जीवन में उसके प्रतिफल कहे जाने वाले कष्ट को भोग रहे हैं इस पर एक सशंकित समाज बन चुके हैं।
वर्तमान काल-खंड में 'गाय' गौ जिसका हमारी पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार एकमात्र तात्पर्य स्वदेशी नश्ल की देशी-गायों से हैं जिन्हें जिन्हें भगवन श्रीकृष्ण वन के गौचरों में चराते थे वर्तमान काल-खण्ड में जिनका धार्मिक या सामाजिक महत्व उस स्तर पर नहीं है जिस स्तर पर कुछ दशको पूर्व था या ५००-१००० वर्ष पूर्व रहा होगा।
कुछ बुद्धिजीवी कालान्तर में हुए युग-परिवर्तन को आधार बना इस प्रकार के विचार व व्यवहार का अनुमोदन करते हैं और इसे विकास ओर उस ओर देखने और बढ्ने को पिछड़ापन या अतीत की घटना से ज्यादा महत्व नहीं देते। उन्हें अपनाने या धारण करने के विषय पर चर्चा या चिंता उनका विषय नहीं है।
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