परजीवी संस्कृतियों का उदय और विस्तार

 भारत में परजीवी संस्कृति का उदय और विस्तार

आज हम काल के उस खंड में पहुँच चुके हैं जहाँ विभिन्न संस्कृतियों की पहचान और उनके उदय और अस्त होने के कारण व अस्तित्व में बने रहने के मूल-आधार की जानकारियों का संकलन व विशलेषण उचित जान पड़ता है

अभी तक हम इस भारतीय उपमहाद्वीप में सनातन संस्कृति आधारित विचारधारा व दृष्टिकोण से ही समस्त विश्व की संस्कृतियों का आंकलन करते रहे हैं जिसका आत्मघाती परिणाम आज हम चारों ओर देख रहे हैं

भारत में   परजीवी संस्कृतियों             का     उदय और विस्तार

परजीवी संस्कृतियों को इस प्रकार के वातावरण में फलने-फूलने का अवसर सदियों से मिलता रहा है और आज वे समाज की मुख्य
धारा का अंग बन चुके हैं जिसका प्रभाव हमारे मस्तिष्क से लेकर आचरण तक में स्पष्ट दिखाई देने लगा है

इस श्रृष्टि में प्रकृति, पर्यावरण व जीवन एक दूसरे के पोषक रहे हैं और इनके प्रत्येक अव्यय शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को सिद्ध करते आचरण को आदिकाल से ही अंगीकृत किये हुए हैं क्योंकि सनातन संस्कृति अनादी काल से ही विश्वव्यापी व व्यवहार-कुशल थी


स्वाधीन भारत में पराधीन संस्कारों का विस्तार

स्वाधीन भारत, भले ही आज की धर्मान्तरित पीढ़ी को पूर्णत: स्वाधीन लगती हो, उन्हें अपने भारतीय होने व सनातन संस्कृति के अंगभूत होने पर गर्व रहता हो किन्तु वास्तविकता सर्वथा भिन्न है। हम जो थे वे आज हम नहीं हैं और अगर २०१३ के उपरांत दृष्टिदोषों का उपचार प्रारम्भ न हुआ होता और भारत के एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में पुनर्जागरण व पुनरुत्थान के वातावरण का निर्माण न होंता, तो आज भी हम इस प्रकार से और इस प्रकार के विचारों को प्रकट करने का दु:साहस न कर सकते 


पराधीन संस्कारों का विस्तार 

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