How to Type in Hindi हिंदी Online

About Hindi Language & Pronunciation of Its Alphabets
 
typing in unicode hindi
Hindi is one of the most popular and widespread language of India, it is National Language of India and holds 4th position globally based on number of native speakers (299 to 366 million speakers) according to National encyclopedin (an encyclopedia in Swedish language).

Today Hindi language is loosing its charm due to a number of reasons and young generation can't understand even its basics. People can easily recall English alphabets but only a few(if any) can recall Hindi Alphabets (हिंदी वर्णमाला), or know how scientific they are, this is quiet common even in states using Hindi as an official state language, writing or typing in Hindi is also not very common today.

Anyway those who are interested in recalling can watch these melodious videos by Miracle Records, that make learning Hindi alphabets fun.

Hindi Swars/vowels Video (हिंदी स्वर) 

 
Hindi Vyanjan/Consonants Video (हिंदी व्यंजन)



In India Hindi is official state language of the following Indian states:
  1. Bihar
  2. Chhattisgarh
  3. Delhi
  4. Haryana
  5. Himachal Pradesh
  6. Jharkhand
  7. Madhya Pradesh
  8. Rajasthan
  9. Uttarakhand
  10. Uttar Pradesh

Hindi Dialects Spoken in India
  1. Braj
  2. Awadhi
  3. Bagheli
  4. Bambaiya Hindi
  5. Bihari
  6. Bundeli
  7. Chattisgarhi
  8. Haryanvi
  9. Hyderabadi Urdu
  10. Kannauji
  11. Khari Boli
  12. Pahari
  13. Rajasthani
  14. Urdu
Hindi uses Devnagi Script (or writing system) which is itself based on Brahamic Script (Indic) which descended from Brahmi Lipi (almost all regional/local languages in India descended from Brahmic (for example, Bengali, Assame, Gujrati, Kannada, Malayalam, Marathi, Oriya, Punjabi, Tamil, Telugu, Manipuri, Tibetan, Sinhala, Sanskrit plus many other in India and South East Asia.

Ways to Type in Hindi
We can type in Hindi (i.e. Devnagri Script) using any one of these three methods:

1. Type using Remington Keyboard : (used by old Hindi Typewriters)

2. Using Inscript Keyboard : (Scientifically designed keyboard for Indic scripts, developed by Government of India, supports 12 Indian Scripts).

3. Use Transliteration Tools : Transliteration means you type in one script (e.g., english) and get text in another (e.g. Hindi).

Online Unicode Hindi Typing
You can find all relevant resources which can be used to type in Hindi using any of the above typing methods, along with others at :

विकिपीडिया:इण्टरनेट पर हिन्दी के साधन

or you can use this online Unicode Hindi typing tool.

Reference : If you are interested to learn more, you can visit these sites.
  1. National encyclopedin
  2. Hindi Language at Wikipaedia
  3. Segmental Writing System at Wiki
  4. Online English to Hindi Conversion Typing Tool
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कहीं चलन न बन जाए रोमन लिपि में हिंदी का लिखा जाना।

                                                          डॉ. अमरीश सिन्हा
                                                      (from http://vhindi.in/)


पिछले दिनों एक संगोष्ठी में जाना हुआ । एक प्रतिभागी का कहना था कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखने से हमें  परहेज नहीं करना चाहिए, बल्कि इसका स्वागत किया जाना चाहिए । उन्होंने तर्क भी दिए कि एसएमएस, कंप्यूटर,  इंटरनेट में रोमन लिपि के सहारे हिंदी लिखने में आसानी होती है । इसलिए समय की जरूरत के मुताबिक इस बात पर  जोर देना हमें बंद करना चाहिए कि हिंदी को हम देवनागरी लिपि में लिखें । उन्होंने यह भी कहा कि आजकल फिल्मों  की स्क्रिप्ट, नाटकों की स्क्रिप्ट, नेताओं के भाषण के साथ-साथ सरकारी कार्यालयों में उच्च अधिकारियों के सम्बोधन  – अभिभाषण आदि के लिए लिखे जाने वाले वक्तव्य रोमन लिपि में लिखे होते हैं । देवनागरी में टाइप करने में समय  अधिक लगता है । टाइप करना कठिन भी है । रोमन में मोबाइल में भी लिखना सरल है । इसलिए रोमन लिपि में हिंदी  लिखने से हिंदी का प्रचार तेजी से होगा । सरसरी तौर पर ये बातें जंचती हुई लग सकती हैं । परन्तु यदि हम इन्हें  इतिहास, समाज और भाषायी संस्कृति के पहलुओं पर विचार करते हुए देखें तो कई महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं    जिनको नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता । किया तो इतिहास को झुठलाना होगा ।

वस्तुत: भाषा एक सदा विकसित होने वाले और बदलने वाला क्रियाकलाप है जिसके पीछे सबसे बड़ा योगदान उस भाषा के मूलभाषियों का होता है । हिंदी भाषा उसका अपवाद नहीं है । हो भी नहीं सकती । हालांकि यह भी उतना ही सत्य और खरा है कि हिंदी को विकसित करने में हिंदीतर लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है । दक्षिण भारत के भाषा-भाषियों के मध्य हिंदी का प्रचार-प्रसार इन हिंदीतर भाषियों की साधना का ही प्रतिफल है । बहरहाल, भाषा विज्ञान कहता है कि किसी भाषा का प्रसार तथा चरित्र उस भाषा का उपयोग करने वाले लोगों द्वारा लगातार परिभाषित और पुन: परिभाषित होते रहने में निहित है । औपनिवेशिक अतीत वाले क्षेत्रों में उपनिवेशकों की भाषा के शब्दों को भी खुलकर अपनाया जाता है । भारत के साथ भी ऐसा ही है । जापान, क्यूबा, तुर्की, निकारागुआ, फ्रांस, जर्मनी आदि जैसे विश्व के कई देशों के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है । इसलिए अधिकांश देशों ने उपनिवेशवाद से मुक्ति मिलते ही अपनी मूल भाषा के उपयोग के वास्ते कमर कस ली । नतीजा सामने है । न क्यूबा में अंग्रेजी या अन्य औपनिवेशिक भाषा में कामकाज होता है, न जापान, फ्रांस, जर्मनी, वियतनाम, पोलैंड आदि देशों में । भले ही, कामकाज सरकारी हो या निजी कंपनियों में । तुर्की के उदाहरण से तो हम सब वाकिफ हैं । मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की के औपनिवेशिक दासता से छुटकारे के तुरंत बाद पूरे देश में तुर्की के इस्तेमाल और व्यवहार का फरमान जारी कर दिया । यह हम और हमारा भारतीय समाज ही है जो स्वाधीनता के 67 वर्ष बाद आज भी इसी एक मुद्दे पर रस्साकशी में जुटे हैं । आपको याद होगा एक नाम डॉ. दौलत सिंह कोठारी का । देश के ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक, शिक्षाविद और नीति नियंता थे वे । उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन के बारे में गहराई तक समझ थी । उनका हमेशा यह मानना रहा कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आतीं, भारतीय साहित्य और संस्कृति का ज्ञान नहीं है, उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है । उन्होंने कहा था कि साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है ।
उनके निर्देशन में ही शिक्षा के संबंध में कोठारी समिति का गठन भारत सरकार ने किया था और उनकी सिफारिशों पर ही वर्ष 1979 से सभी प्रशासनिक सेवाओं में पहली बार अपनी भाषाओं में लिखने की छूट मिली । इसके अद्भुत परिणाम देखने को मिले । परीक्षा में बैठने वालों की संख्या एकबारगी ही दस गुना बढ़ गई । गरीब घरों के मेधावी छात्र आई.ए.एस. बनने लगे । आदिवासी, अनुसूचित जाति की पहली पीढ़ी के बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए । रिक्शाचालक का लड़का भी आई.ए.एस. बन सका और दूसरे के घरों में काम करने वाली की लड़की भी । वरना 1979 से पहले सिर्फ धनाढ्य अंग्रेजीदां के सुपुत्र – सुपुत्रियां ही जिलाधीश की कुर्सियों पर काबिज़ हो पाती थीं । संविधान में समानता के इसी आदर्श तक पहुंचने की लालसा हमारे संविधान – निर्माताओं के मन में थी । यद्यपि वर्ष 2013 की शुरूआत में इस पध्दति को बदलने की कोशिश की गई । एक डर सा छा गया देश के असंख्य युवक-युवतियों के मन में । संसद में बहस हुई और सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं का परीक्षा का माध्यम बनाए रखने की पध्दति पूर्ववत रखने का फैसला ले लिया गया । यह सुखद और सुकुन भरा पक्ष रहा ।
शब्दों से प्रगाढ़ता बनाता शब्दों को आसान :
लेकिन फिर वह मसला ज्यों-का-त्यों रह जाता है कि हिंदी के लिए रोमन लिपि के इस्तेमाल के क्या-क्या खतरे हैं । महज इस वजह से कि हमें मोबाइल पर टाइप करते वक्त रोमन का प्रयोग सरल लगता है, रोमन लिपि की तरफदारी नहीं की जा सकती । यह विषय वस्तुपरक (सब्जेक्टिव) भी है । जो कार्य किसी एक के लिए आसान हो सकता है, वही दूसरे के लिए कठिन और दुरूह भी हो सकता है । ये दोनों स्थितियां व्यक्ति की क्षमता, योग्यता, उम्र, परिवेश, संस्कार और कौशल आदि कई गुण-दोषों पर निर्भर करती हैं । वैसे भी, अब एंड्राइड फोनों और कम्प्यूटरों दोनों जगह देवनागरी की वर्णमाला स्क्रीन पर एक क्लिक पर डिस्पले हो जाती है । आप हर चौकोर खाने की उंगली से छूते जाएं, टेक्स्ट टाइप होता जाएगा । कहां क्या परेशानी है ? इस संगोष्ठी में ही एक युवा अपने एंड्राइड फोन पर इस सुविधा को प्रदर्शित करते हुए सभी के समक्ष देवनागरी लिपि की पैरवी करता हुआ दिखा । यह देखकर युवा वर्ग पर लगने वाला यह आरोप भी खारिज़ होता है कि अंग्रेजी की मुख़़ालफत करने वाला वर्ग युवा वर्ग है । हिंदी में सरकारी कामकाज को कई लोग कठिन मानते हैं । उच्च शिक्षा हिंदी या मातृभाषा में नहीं प्राप्त की जा सकती, न ही, विज्ञान और तकनीकी संबंधी ज्ञान अंग्रेजी के इतर भारतीय भाषाओं में हासिल नहीं की जा सकती – यह मानना सिरे से मिथ्या है ; कारण यह कि जापान, चीन और दोनों कोरियाई देश, जर्मनी और यहां तक इजरायल भी अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान नहीं करते हैं जबकि दुनिया में ये देश तकनीकी प्रगति के प्रणेता माने जाते हैं ।


इस संदर्भ में ‘सरल’ और ‘कठिन’ पर थोड़ी चर्चा जरूरी है । भाषा के बनावटीपन को छोड़ दें (जैसे, ट्रेन के लिए ‘लौहपथगामिनी’ या ट्रैफिक सिग्नल के लिए ‘यातायात संकेतक’ का प्रयोग) तो क्या सरल है और क्या कठिन, यह अक्सर उपयोग की बारम्बारता पर निर्भर करता है । बार-बार उपयोग से शब्दों से परिचय प्रगाढ़ हो जाता है और वे शब्द हमें आसान प्रतीत होने लगते हैं । जैसे ‘रिपोर्ट’ के लिए महाराष्ट्र में ‘अहवाल’ शब्द लोकप्रिय है लेकिन उत्तर प्रदेश में ‘आख्या’ का प्रयोग होता है । बिहार में ‘प्रतिवेदन’ का, तो कई अन्य जगह देवनागरी में ‘रिपोर्ट’ ही लिखी जाती है । उर्दू में पर्यायवाची शब्द है रपट । इसी तरह ‘मुद्रिका (दिल्ली की बस सेवा में प्रयुक्त शब्द), विश्वविद्यालय, तत्काल सेवा, पहचान पत्र प्रचलित शब्द हैं गरज़ कि ये संस्कृत मूल शब्द हैं । स्कूली छात्र – छात्राओं के लिए बीजगणित (Algebra), अंकगणित (Arithmetic), ज्यामिति (Geometry), वाष्पीकरण (Veporisation) आदि संस्कृत मूल शब्द आसान हैं, क्योंकि प्रयोग की बारम्बरता यहां लागू होती है । क्वथनांक, गलनांक, घनत्व, रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, सिध्दांत, गुणनफल, विभाज्यता नियम, समुच्चय सिध्दांत, बीकर, परखनली, कलन शास्त्र आदि भी ऐसे ही शब्द हैं । इनका प्रथम प्रयोग दुरूह प्रतीत हो सकता है, पर निरंतर प्रयोग इन्हें हमारे लिए सरल बना देता है ।

अन्य भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल जरूरी


अंग्रेजी के पैरोकारों का मानना है कि अंग्रेजी समृध्द भाषा है, अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क-भाषा है । शेक्सपीयर, मिल्टन और डारविन जैसे मनिषियों ने उसमें अपनी रचनाएं की हैं । ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में अंग्रेजी बोली जाती है, इस बात को स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं है । लेकिन अंग्रेजी एकमात्र समृध्द भाषा है, सत्य नहीं है । ऐसा ही होता तो कम्प्यूटर के मसीहा कहे जाने वाले अमेरिकी निवासी बिल गेट्स अधिकारिक और सार्वजनिक रूप से यह नहीं कहते कि संस्कृत कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा और इसकी देवनागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है ।
प्रसंगवश यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि यूरोपीय देशों में अंग्रेजी का प्रसार उसकी समृध्दि के कारण नहीं हुआ । उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है, उनकी जमीन छीन ली गई है, वहां की जनता को गुलाम बनाकर बेचा गया है और आज भी कई समुदाय गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं । यूरोपीय भाषाओं के बारे में एक भ्रान्त धारणा यह भी है कि उन सभी में अन्तरराष्ट्रीय शब्दावली प्रचलित है । अंग्रेजी की हिमायत करने वालों के पास एक तर्क यह भी है । लेकिन सत्य यह है कि अंग्रेजी सहित इन सभी यूरोपीय भाषाओं के पास पारिभाषिक शब्दावली गढ़ने के लिए कोई एक निश्चित स्त्रोत नहीं है । वे लैटिन से शब्द गढ़ती हैं । फ्रेंच, इतालवी के लिए यह स्वाभाविक है, क्योंकि वे लैटिन परिवार की हैं । यूरोप की भाषाएं ग्रीक के आधार पर शब्द बनाती हैं, क्योंकि यूरोप का प्राचीनतम साहित्य ग्रीक में है और वह बहुत सम्पन्न भाषा रही है । जर्मन, रूसी भाषाएं बहुत से पारिभाषिक शब्द अपनी धातुओं या मूल शब्द भंडार के आधार पर बनती हैं ।
जिस भाषा के पास अपनी धातुएं हैं और उपयुक्त मूल शब्द होंगे, वह भाषा समृध्द होगी । उसे ग्रीक या लैटिन या किसी अन्य भाषा से उधार लेने की जरूरत नहीं । संस्कृत, हिंदी और भारत की अन्य भाषाओं, विशेषतया दक्षिण भारत की मलयालम, तमिल और कन्नड जैसी शास्त्रीय भाषाएं तथा महाराष्ट्र की मराठी (मराठी को देश की छठी शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने के बाबत गठित अध्ययन समिति ने अपनी अनुशंसा दे दी है) के पास धातु-शब्दों का भंडार है । अंग्रेजी में अपने घर की पूंजी कुछ नहीं है । ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, फारसी, संस्कृत और हिंदी से उधार माल को अंग्रेजी में अंग्रेजी शब्द कहकर खपाया जाता है । बैंक, रेस्तरां, होटल, आलमीरा, लालटेन, जंगल, पेडस्टल (‘पदस्थली’ से बना) ऐसे ही चंद शब्द हैं जो मिसाल के लिए काफी हैं । एक तथ्य और है । धार्मिक कारणों से ब्रिटेन में ग्रीक की अपेक्षा लैटिन अधिक पढ़ी जाती रही है । इसलिए ग्रीक शब्दों के आधार पर बनी शब्दावली अधिक गौरवमयी समझी जाती है । हिंदी की बात करें तो इस भाषा में कई पारिभाषिक शब्दों का निर्माण हो चुका है ।
कई विद्वान निजी तौर पर पारिभाषिक शब्दों का निर्माण करते रहे हैं । अज्ञेय ने फ्रीलांस के लिए ‘अनी-धनी’ शब्द गढ़ा, हालांकि यह शब्द चला नहीं । भारत सरकार के अधीन कार्यरत वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्यरत रहते हुए हिंदी और अन्य मुख्य भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दावली, शब्दार्थिकाओं, पारिभाषिक शब्दकोशों और विश्वकोशों का निर्माण करती रही है जिनमें सभी विज्ञानों, सामाजिक विज्ञानों और मानविकी विषयों को तथा प्रशासनिक लेखन से संबंधित शब्दावली को सम्मिलित किया गया है ।
हिंदी को आधुनिक अकादमिक विमर्श और ज्ञान मीमांसा के नए क्षेत्र के हिसाब से सक्षम करने के लिए लाखों नए शब्द हिंदी में निर्मित किए गए हैं और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है । देश की सामासिक संस्कृति (composite culture) को ध्यान में रखते हुए इतर भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय और व्यावहारिक प्रयोग के शब्द हिंदी में शामिल किए जाते हैं । जैसे ‘tomorrow’ और ‘note’ के लिए मराठी शब्द क्रमश: ‘उद्या’ एवं ‘नोंद’ का प्रयोग महाराष्ट्र में लिखी जाने वाली हिंदी में देखने को मिलता है । क्योंकि यह आवश्यक और उपयुक्त प्रतीत नहीं होता कि हम नए पारिभाषिक शब्द बनाते समय हमेशा संस्कृत शब्दों का सहारा लें जैसा कि विगत में अक्सर होता रहा है, भले ही इतर भाषाओं, उर्दू, हिंदी तथा अंग्रेजी के लोकप्रिय शब्दों या ‘बोलियों’ के रूप में जाने जानी वाली भाषाओं में बेहतर विकल्प मौजूद हों जिनका भाषा के मुहावरे के साथ अच्छा तालमेल हो और समझने में भी आसान हो । ज्ञानार्जन की दृष्टि से, विशेषतया अध्ययन – अध्यापन – शोध – शिक्षण – प्रशिक्षण के क्षेत्रों में ‘मानक’ और संस्कृतनिष्ठ शब्दों की बजाय समझ में आने वाले स्पष्ट व उपयुक्त शब्दों का उपयोग श्रेयस्कर सिध्द हुआ है । कई अंग्रेजी तकनीकी शब्द भी हूबहू देवनागरी लिपि में लिखना प्रेरक और सफल रहा है । आई. टी. से जुड़े कई शब्द यथा, कम्प्यूटर, माउस, हैंग हो जाना, प्रिंटर, टेबलेट, फोल्डर, डेस्कटॉप, एप्लिकेशन, इंस्टॉल करना, इनबॉक्स, अपलोड, डाउनलोड, ट्रैश, स्पैम, स्क्रीन आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं । यह जरूरी है कि हिंदी में गरिमा और मानक के नाम पर अड़ियलपन और निरर्थक जटिलता के बंधनों को हटा दें । लोकप्रिय शब्दों को प्रयोग में लाएं पर सामासिक संस्कृति के हिसाब से, न कि सतही, अल्पकालिक और त्वरित उपाय ढूंढ़ने चाहिए । ऐसा न हो कि हिंदी में मानकीकरण और एकरूपता की धारणा पर हम ज्यादा ही जोर देने लगें । ऐसा होने पर अस्वाभाविक और बनावटी भाषा विकसित हो जाती है जो किसी भी मूलभाषी के भाषा भंडार का हिसाब नहीं होती । विख्यात हिंदी साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा था – ‘हिंदी तब तक विकसित नहीं हो सकती, जबतक कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उसका गहरा संबंध नहीं बनेगा’ । – यदि हमें हिंदी को बचाना है तो निश्चितरूप से क्षेत्रीय भाषाओं के साथ हमें तालमेल को विकसित करना होगा ।

दफ्तर में आते ही हिंदी भाती नहीं

एक दिलचस्प बात यह है कि जब हम सहज होते हैं, मनोरंजन की दुनिया में होते हैं, गाने सुनते हैं, ग़ज़ल-गीत सुनते हैं, फिल्में या टी.वी. धारावाहिक देखते हैं, या फिर बाजार में मोलभाव कर रहे होते हैं तब तो बड़े चाव से हिंदी का सहारा ले रहे होते हैं, लेकिन ज्योंही कार्यालयों में – सरकारी संस्थानों में प्रवेश होता है तो हिंदी लिखने में हमें शर्म महसूस होने लगती है या हाथ कांपने लगते हैं । कोई ‘टाइपिंग नहीं आती’ का रोना रोने लगते हैं, तो कोई ‘जल्दी है’ कहकर पीछा छुड़ाने लगते हैं । यह भी प्राय: सुनने को मिलता है कि हिंदी के शब्द जानने के वास्ते हमारे पास ‘डिक्शनरी-ग्लॉसरी’ नहीं है । पर मूल मुद्दा हमेशा एक ही रहता है – हिंदी लिखने में आत्मविश्वास की कमी । अंग्रेजी लिखने में हम बनावटी दंभ महसूस करते हैं, बस । जब आप अपनी कलम से किसी कागज पर या बैंक या रेल आरक्षण काउंटर पर फॉर्म भरते वक्त नाम लिखते हैं तो किसी टाइपिंग कला या कम्प्यूटर ज्ञान की जरूरत होती है ? किसी शब्दकोश – शब्दावली की आवश्यकता होती है ? फिर आपकी कलम की स्याही अंग्रेजी की तरफ क्यों बढ़ती है ? साफ है, या तो आप में आत्मविश्वास का अभाव है या आप अंग्रेजी के आतंक में हैं। पर यह स्पष्ट है कि तकनीक और शब्दकोशों से ज्यादा जरूरत हमें  इच्छाशक्ति की है।
भारत के विख्यात वैज्ञानिक व एकमात्र जीवित आविष्कारक और हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास लिखकर चर्चित हुए डॉ. जयंत नार्लिकर से यह पूछे जाने पर जब वैज्ञानिक लेखन करते वक्त मौलिक चिंतन की आवश्यकता महसूस हुई तब क्या आपने अंग्रेजी भाषा में ही सोचा, उन्होंने कहा – ‘यह संभव ही नहीं था’ । उस समय मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा ने मेरी मदद नहीं की और न ही कर सकती थी । फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकोई मितरां से जब पूछा गया कि आप अपने देश में फ्रेंच भाषा को अंग्रेजी की बनिस्पत अधिक तरज़ीह क्यों देते हैं, राष्ट्रपति मितरां ने कहा कि क्योंकि हमें अपने सपने साकार करने हैं । जब हम सपने अपनी भाषा में देखते हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए जो भी काम करेंगे उनके लिए अपनी ही भाषा का प्रयोग जरूरी होगा, पराई भाषा का नहीं ।

भाषा ‘फोनेटिक’ है तभी वैज्ञानिक है

बहरहाल, उसी संगोष्ठी में एक और सज्जन का कहना था कि भाषा फोनेटिक (ध्वनि पर आधारित) होती है । अर्थात – सुनने में जैसा लगे, भाषा वैसी ही होनी चाहिए और इस लिहाज से तो देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी , मराठी, संस्कृत आदि भाषाओं की ही जरूरत है और भविष्य भी इनका ही है । देवनागरी लिपि में 52 वर्णाक्षर होते हैं । पांच स्वर होते हैं । शेष व्यंजन होते हैं । स्वर वे होते हैं जिन्हें उच्चारित करने के लिए ओंठ और दांतों का सहारा नहीं लिया जाता है । स्वर आधारित राग-रागिनियां हैं हमारे शास्त्रीय संगीत में । फिर कवर्ग (क, ख, ग, घ), टवर्ग (ट, ठ, ड़, ढ) व तवर्ग (त, थ, द, ध) आदि हैं । कितना सूक्ष्म विश्लेषण है अक्षरों का, शब्दों के उच्चारण का । बड़ी ई’, छोटी ‘इ’, छोटा ‘उ’, बड़ा ‘ऊ’ की मात्राओं से शब्दों के अर्थ कितने विस्तृत हो जाते हैं ! जैसे, ‘दूर’ से भौगोलिक दूरी की अभिप्राय होता है तो ‘दुर’ से तुच्छ वस्तु का अर्थ सामने आता है । इसी प्रकार ‘सुख’ आनंद का पर्याय है, जबकि ‘सूख’ से शुष्क या सूख (dry) जाने का बोध होता है । एक उदाहरण लें । यदि हमें ‘डमरू’ लिखना हो रोमन में तो हम ‘dumru’ या ‘damroo’ लिखेंगे । पर क्या पढ़ने वाला ‘दमरू’ नहीं पढ़ सकता है । ‘ण’, ‘र’ के प्रयोग तो हिंदी में विलुप्त ही होते जाते रहे हैं । रोमन में बेड़ा किस कदर गर्क होगा, अनुमान लगाया जा सकता है । और फिर ‘क्ष’, ‘त्र’, ‘ज्ञ’, ‘त्र’ का क्या – - – ‘ड’ और ‘ड़’ तथा ‘ढ’ और ‘ढ़’ का क्या करेंगे ? इन सबको हटा देंगे अपने व्याकरण से, अपने जेहन से ? सुविधा और आधुनिकता के नाम पर भविष्य में ऐसा हो जाए तो अचरज नहीं । फिर देवनागरी लिपि के 52 वर्ण घटकर 25-26 रह जाएंगे । कल्पना कीजिए, यदि ऐसा ही कुछ हो गया तो !

हमारे देश व पूरी दुनिया में विगत पचास वर्षों में कई भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो गई हैं । अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तथा अरूणाचल प्रदेश में कई भाषाएं, बोलियां इन कारणों से लुप्त हो गईं कि कुछ की लिपियां न होने के कारण शिक्षण का माध्यम न बन सकीं और कुछ के बोलने वाले नहीं रहे । झारखण्ड में बोली जाने वाली ‘हो’, ‘संताली’, ‘मुंडारी’ आदि भाषाओं को अक्षुण्ण बनाने के लिए प्रयास तीव्र हो गए हैं, क्योंकि उनके प्रयोग करने वालों की संख्या लगातार घट रही है ।

दरअसल सारी परेशानियां गुरूतर तब हो गई जब कम्प्यूटर का भारत की धरती पर प्रवेश हुआ । अंग्रेजी भाषा के हिमायती नागरिकों ने कहना शुरू कर दिया कि हिंदी व दूसरी भारतीय भाषाओं का भविष्य खतरे में है । खुद कम्प्यूटर के प्रचालकों ने भी यह अफवाह फैलानी शुरू कर दी । धीरे-धीरे लोगों को यह समझ में आया कि कम्प्यूटर की तो अपनी कोई भाषा नहीं होती । यह तो डॉट (.) के रूपों को ही स्क्रीन पर प्रदर्शित करता है । फिर धीरे-धीरे, बल्कि कहें तो 21 वीं सदी में काफी तेजी से कम्प्यूटर ने इंसानी जीवन में दखल देना शुरू कर दिया । तब भी आरंभ के कुछ वर्षों तक भी अंग्रेजी को ही कम्प्यूटर की मित्र भाषा समझा गया । लेकिन धीरे-धीरे यह बात सामने आई कि कम्प्यूटर की दरअसल कोई भाषा नहीं होती है और अगर भाषा की कोई दरकार है अप्लिकेशंस को लेकर तो वह है देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली भाषाएं । मसलन हिंदी, मराठी, संस्कृत आदि । माइक्रोसॉफ्ट के जनक बिल गेट्स ने यह भी कहा है कि देवनागरी लिपि और इस लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृत एवं हिंदी भाषाएं सर्वाधिक तार्किक और तथ्यपरक भाषाएं हैं ।

देवनागरी लिपि : श्रेष्ठ लिपि


आइए, यह भी जान लें कि हिंदी भाषा की लिपि ‘देवनागरी कहां से और कैसे शुरू हुई; क्योंकि भारत की संविधान सभा ने भी 14 सितम्बर 1949 को यह घोषणा आधिकारिक तौर पर की थी कि संघ की राजभाषा हिंदी होगी जिसकी लिपि देवनागरी होगी । वस्तुत: ‘देवनागरी’ लिपि नागरी लिपि का विकसित रूप है । ब्राम्ही लिपि का एक रूप ‘नागरी लिपि’ था । नागरी लिपि से ही ‘देवनागरी लिपि’ का विकास हुआ । अनेक प्राचीन शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में ब्राह्मी लिपि प्रयुक्त हुई है । अशोक के शिलालेख भी ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गये हैं । ईसा की चौथी शताब्दी तक समस्त उत्तर भारत में ब्राह्मी लिपि प्रचलित थी । ईसा -पूर्व पाँचवीं सदी तक के लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं । इस प्रकार यह लिपि लगभग ढाई हज़ार वर्ष पुरानी है । इतनी प्राचीन होने के कारण इसे ‘ब्रह्मा की लिपि’ भी कहा गया है । यही भारत की प्राचीनतम मूल लिपि है, जिससे आधुनिक सभी भारतीय लिपियों का जन्म हुआ ।

ईसा-पूर्व पाँचवीं शताब्दी से लेकर ईसा के बाद चौथी शताब्दी तक के लेखों की लिपि ब्राह्मी रही है । मौर्य-काल में भारत की राष्ट्रीय लिपि ‘ब्राह्मी’ ही थी । इसके बाद ब्राह्मी लिपि दो रूपों में विभाजित हो गई – उत्तरी ब्राह्मी तथा दक्षिणी ब्राह्मी । उत्तरी ब्राह्मी प्रमुखत: विंध्याचल पर्वतमाला के उत्तर में प्रचलित रही तथा दक्षिणी ब्राह्मी विंध्याचल के दक्षिण में । ‘उत्तरी ब्राह्मी’ का आगे चलकर विविध रूपों नें विकास हुआ । उत्तरी ब्राह्मी से ही दसवीं शताब्दी में ‘नागरी लिपि’ विकसित हुई तथा नागरी लिपि से ‘देवनागरी लिपि’ का जन्म हुआ । उत्तर भारत की अधिकांश लिपियां, यथा, कश्मीरी, गुरूमुखी, राजस्थानी, गुजराती, बंगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं की लिपियाँ नागरी लिपि का ही विकसित रूप हैं । यही कारण है कि देवनागरी लिपि तथा उक्त सभी लिपियों में अत्यधिक समानता है । ‘दक्षिण ब्राह्मी’ से दक्षिण भारतीय भाषाओं, य़था, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालय आदि भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ । यद्यपि इन लिपियों का विकास भी मूलत: ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है, तथापि देवनागरी लिपि से इनमें कुछ भिन्नता आ गई है ।

इन कारणों से देवनागरी लिपि है वैज्ञानिक

• यह लिपि विश्व की सभी भाषाओं की ध्वनियों का उच्चारण करने में सक्षम है । अन्य लिपियों में, विशेषकर विदेशी लिपियों में यह क्षमता नहीं है । जैसे अंग्रेजी में देवनागरी लिपि की महाप्राण ध्वनियों, कुछ अनुनासिक ध्वनियों आदि के लिए कोई उपयुक्त ध्वनि उपलब्ध नहीं है ।
• देवनागरी लिपि में जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है और जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है । लिखने और बोलने में समानता के कारण इसे सीखना सरल है । विदेशी लिपियों में यह विशेषता नहीं है । अंग्रेजी में तो बिल्कुल ही नहीं ।

• देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण की ध्वनि निश्चित है । वर्णों की ध्वनियों में वस्तुनिष्ठता है, व्यक्तिनिष्ठता नहीं । अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण हर व्यक्ति अपने तरीके से करता है ।


• इस लिपि में एक वर्ण एकाधिक ध्वनियों के लिए प्रयुक्त नहीं होता । अत: किसी भी वर्ण के उच्चारण में कहीं भी भ्रम की स्थिति नहीं है । अंग्रेजी में एक ही वर्ण भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न रूप में उच्चारित होता है, अत: भ्रम की स्थिति रहती है ।


• देवनागरी लिपि में प्रत्येक प्रयुक्त वर्ण ध्वनि अवश्य देता है । चुप नहीं रहता । अंग्रेजी में कहीं-कहीं प्रयुक्त वर्ण चुप भी रहते हैं । जैसे, Budget में ‘d’ का उच्चारण नही होता । walk और knife में क्रमश: l और k चुप रहते हैं । कैसी विडम्बना है कि जिन वर्णों का सृजन ध्वनि देने के लिए किया गया है, भावों की सम्प्रेषणीयता के लिए किया गया है, उन्हें प्रयुक्त होने के बाद भी चुप रहना पड़ता है ।


• देवनागरी लिपि में ध्वनियों को अधिकाधिक वैज्ञानिकता प्रदान करने के लिए स्वरों तथा व्यंजनो की पृथक-पृथक वर्णमाला निर्मित की गई है ।


• स्वरों के उच्चारण के समय जैसी मुख की आकृति होती है, वैसी ही आकृति सम्बन्धित वर्ण की होती है । जैसे – ‘अ’ का उच्चारण करते समय आधा मुख खुलता है । ‘आ’ की रचना पूरा मुख खुलने के समान है । ‘उ’ का आकार मुख बंद होने की तरह है । ‘औ’ में दो मात्राएँ मुख के दोनों जबड़ों के संचालन के समान हैं ।


• स्वरों की ध्वनियों की वैज्ञानिकता यह है कि बच्चा पैदा होने के बाद स्वरों के उच्चारण क्रम में ही होते हैं ।


• स्वरों के उच्चारण में हवा कंठ से निकल कर उच्चारण स्थानों को बिना स्पर्श किये, बिना अवरूध्द हुए, ध्वनि करती हुई मुख से बाहर निकलती है ।


• व्यंजनों के उच्चारण में हवा कंठ से निकलकर उच्चारण-स्थानों को स्पर्श करती हुई या घर्षण करती हुई, ध्वनि करती हुई, ओठों तक होती हुई मुख या मुख और नासिका से बाहर निकलती है । इस प्रकार स्वरों तथा व्यंजनों में ध्वनि उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भिन्नता है । अत: सिध्दांतत: स्वरों तथा व्यंजनों का वर्गीकरण पृथक-पृथक होना ही चाहिए । देवनागरी लिपि में इसी वैज्ञानिक आधार पर स्वर और व्यंजन अलग-अलग वर्गीकृत किये गये हैं ।


• व्यंजनों को उच्चारण-स्थान के आधार पर कंठ्य, मूर्ध्दन्य, दन्त्य तथा औष्ठ्य-इन पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है । कंठ से लेकर ओठों तक ध्वनियों का ऐसा वैज्ञानिक वर्गीकरण अन्य लिपियों में उपलब्ध नहीं है । उक्त वर्गीकरण ध्वनि-विज्ञान पर आधारित है ।


• देवनागरी लिपि में अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में भी वैज्ञानिकता है, क्योंकि शब्दों के साथ उच्चारण करने पर अनुनासिक ध्वनियों में अन्तर आ जाता है, इसलिए व्यंजनों के प्रत्येक वर्ग के साथ, वर्ग के अंत में उसका अनुनासिक दे दिया गया है ।


• देवनागरी लिपि में हृस्व और दीर्घ मात्राओं में स्पष्ट भेद है । उनके उच्चारण में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है । अन्य लिपियों में हृस्व और दीर्घ मात्राओं के उच्चारण की ऐसी सुनिश्चितता नहीं है । अंग्रेजी में तो वर्णों से ही मात्राओं का काम लिया जाता है । वहाँ हृस्व और दीर्घ में कोई अंतर नहीं है, मात्राओं का कोई नियम नहीं है ।


बहरहाल, सरकारी संस्थानों में संगोष्ठियों का आयोजन स्वागतयोग्य है । इसके मूलत: तीन कारण मेरे विचार में हैं । पहला, कार्यालयीन कामकाज में तल्लीन व्यक्ति को वैचारिक धरातल पर कुछ सुनने – समझने और सोचने विचारने – के अवसर मिलते हैं । यह उसकी मस्तिष्कीय सक्रियता को बढ़ाता है और सुषुप्त पड़ी रचनात्मक प्रतिभा को सामने लाने में सहायक होता है । दूसरा कारण, विचारवान व्यक्तियों से परिवार व समाज विचारवान होता है । आखिरी वजह बुनियादी भी है । भारत सरकार की राजभाषा नीति के क्रियान्वयन की दिशा में यह एक सशक्त गतिविधि है । उम्मीद है, सशक्त संगोष्ठियों के आयोजन का सिलसिला सरकारी कार्यालयों और विभागों में बढ़ेगा ।


पर यह आवश्यक हे कि हम किसी भी भारतीय भाषा को उसी लिपि में लिखें और लिखने को तरज़ीह दें जो उस भाषा के लिए बनी हुई है । रोमन लिपि के प्रति आकर्षण अंतत: हमें अपनी जड़ों से अलग ही करेगा । आखिर में एक बात । ज्यों – ज्यों हमारे देश में हिंदी और दूसरी भाषाओं को हल्के में लिए जाने का षडयंत्र बढ़ेगा, त्यों – त्यों इन भाषाओं के जानकारों का वर्चस्व बढ़ेगा । अच्छी हिंदी – शुध्द हिंदी, अच्छी मराठी – शुध्द मराठी, अच्छी गुजराती – शुध्द गुजराती लिखने-बोलने वालों की तूती बोलेगी .। तथास्तु ।

डॉ. अमरीश सिन्हा
पता : ए-103, सच्चिदानंद रहेजा कॉम्पलेक्स,
मालाड (पूर्व), मुंबई-400 097
मोबाइल : 9869531601
ई-मेल : amrishsinhaa@gmail.com

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